उत्तर – जब 1956 में 'आलम आरा' के प्रदर्शन के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर उन्हें सम्मानित किया गया और उन्हें 'भारतीय सवाक् फिल्मों का पिता' कहा गया तो उन्होंने उस मौके पर कहा था, "मुझे इतना बड़ा खिताब देने की जरूरत नहीं है। मैंने तो देश के लिए अपने हिस्से का जरूरी योगदान दिया है।" इस प्रसंग की चर्चा करते हुए लेखक ने अर्देशिर को विनम्र कहा है।
उत्तर – (i) हित – सहित
(ii) परिवार – सपरिवार
(iii) विनय – सविनय
(iv) चित्र – सचित्र
(v) बल – सबल
(vi) मान – सम्मान
उत्तर – जब पहली बार सिनेमा ने बोलना सीख लिया, सिनेमा में काम करने के लिए पढ़े - लिखे अभिनेता - अभिनेत्रियों की जरुरत भी शुरू हुई क्योंकि अब सवांद भी बोलने थे, सिर्फ अभिनय से काम नहीं चलने वाला था। आरंभिक 'सवाक' दौर की फिल्मों में कई 'गायक अभिनेता' बड़े पर्दे पर नज़र आने लगे। हिंदी - उर्दू भाषाओं का महत्व बढ़ा। अभिनेताओं - अभिनेत्रियों की लोकप्रियता का असर भी दर्शकों पर पड़ने लगा। औरतें अभिनेत्रियों की केश सज्जा तथा उनके कपड़ों की नकल करने लगीं। तकनीकी दृष्टि से फिल्मों में काफ़ी बदलाव आया, फिल्में अधिक आकर्षक लगने लगी, गीत-संगीत का भी महत्व बढ़ने लगा।
उत्तर – 'आलम आरा' फिल्म के बारे में निम्नलिखित जानकारी पाठ में दी गई है।
i. यह फिल्म 14 मार्च 1931 को मुंबई के 'मैजेस्टिक' सिनेमा में प्रदर्शित हुई। फिल्म 8 सप्ताह तक हाउसफुल चली।
ii. यह फिल्म 10 हज़ार फुट लम्बी थी और इसे चार महीनों की कड़ी मेहनत से तैयार किया गया था।
iii. फिल्म के संगीत में महज तीन वाद्य - तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया गया।
iv. पारसी नाटक को आधार बनाया गया था।
v. इस फिल्म के पहले पाश्र्वगायक बने डब्लू एम खान।
vi. पहला गाना था 'दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, अगर देने की ताकत है।'
vii. रात में शूटिंग होने के कारण कृत्रिम प्रकाश की व्यवस्था की गई।
viii. फिल्म हिंदी - उर्दू मेल वाली भाषा का प्रयोग किया गया।
ix. इस फिल्म में नायिका ज़ुबैदा और नायक विट्ठल थे।