उत्तर – 'आलम आरा' की शूटिंग रात में होने के कारण इसमें कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था करनी पड़ी। यहीं से प्रकाश प्रणाली बनी जो आगे चल कर फिल्म निर्माण का जरुरी हिस्सा बनी।
उत्तर – दर्शकों के लिए यह फिल्म एक अनोखा अनुभव थी। यह फिल्म 10 हज़ार फुट लम्बी थी और इसे चार महीनों की कड़ी मेहनत से तैयार किया गया था। फिल्म 8 सप्ताह तक हाउसफुल चली और भीड़ इतनी उमड़ती थी कि पुलिस के लिए निंयत्रण करना मुश्किल हो जाया करता था।
उत्तर – 'आलम आरा' फिल्म 14 मार्च 1931 को मुंबई के 'मजेस्टीक' सिनेमा में प्रदर्शित हुई। फिल्म 8 सप्ताह तक 'हाउसफुल' चली और भीड़ इतनी उमड़ती थी कि पुलिस के लिए नियंत्रण करना मुश्किल हो जाया करता था। दर्शकों के लिए यह फिल्म एक अनोखा अनुभव थी।
उत्तर – देश की पहली बोलती फिल्म के विज्ञापन के लिए छापे गए वाक्य इस प्रकार थे – “वे सभी सजीव हैं, साँस ले रहे हैं, शत-प्रतिशत बोल रहे हैं, अठहत्तर मुर्दा इनसान जिंदा हो गए, उनको बोलते, बातें करते देखो।” पाठ के आधार पर ‘आलम आरा’ में कुल मिलाकर 78 चेहरे थे अर्थात् काम कर रहे थे।
उत्तर – 'आलम आरा' का संगीत उस समय डिस्क फॉर्म में रिकॉर्ड नहीं किया जा सका, फिल्म की शूटिंग शुरू हुई तो साउंड के कारण ही इसकी शूटिंग रात में करनी पड़ती थी। मूक युग की अधिकतर फिल्मों को दिन के प्रकाश में शूट कर लिया जाता था, मगर आलम आरा की शूटिंग रात में होने के कारण इसमें कृत्रिम प्रकाश की व्यवस्था करनी पड़ी।
उत्तर – फिल्मकार अर्देशिर एम. ईरानी ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी और तभी उनके मन में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जगी। पारसी रंगमंच के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर उन्होंने अपनी फिल्म की पटकथा बनाई।
उत्तर – कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जिनमें अभिनय करने वाले और सवांद बोलने वाले दोनों एक व्यक्ति नहीं होते, ऐसी फिल्मों को डब फिल्में कहते हैं। कभी-कभी फिल्मों में आवाज़ तथा अभिनेता के मुँह खोलने में अंतर आ जाता है। ऐसा फिल्मों की भाषा तथा डब की भाषा के अंतर से या किसी तकनीकी दिक्कत के कारण हो जाता है।
उत्तर – विट्ठल को उर्दू बोलने में मुश्किलें आती थीं। पहले उनका बतौर नायक चयन किया गया मगर इसी कमी के कारण उन्हें हटाकर उनकी जगह मेहबूब को नायक बना दिया गया। विट्ठल नाराज हो गए और अपना हक पाने के लिए उन्होंने मुकदमा कर दिया। विट्ठल मुकदमा जीत गए और भारत की पहली बोलती फिल्म के नायक बने।